⚡मुखोटे पर मुखोटा चढ़ा कर, यार, तुम क्यों थकते नहीं?! खुद कि नहीं तो उस परेशान आयने की सोचो जो तुम्हें पहचाना ही भूल गया! फिर, कुछ दोस्त ऐसे भी मिले जो शिकायत से शिकायत रखते हैं। खुशनसीब हैं हम की चंद लम्हे उनके साथ भी गुज़ारे। पर बयान-ए-नज़राना कह लो या गुलाम-ए-वक़्त, शायर बना ही देता है शातिर जमाना। ज़हन में जुनून लिए हमने भी मोर्चा निकाल लिया। त्योहार आते रहे, मौके मिलते रहे कि अब कहीं शिकंज दूर होगी। पर इनसानियत की बदकिसमती कह लो या इनसान की फितरत, खुशी से कोई खुश नहीं। दो पल जो बक्शे हैं बनाने वाले ने, यार, उन्हें गवाना नहीं। खुद की रूह जिंदा रहे ना रहे, हवा सबूत रखती है हर सलूक की । हर बेग़र्ज़ कोशिश में खुदगर्जी ढूंढने वालों, वक़्त- बे वक़्त सा ज़िश की तलाश छोड़ो अब । धोखा हम भी खा चुके हैं बहुत, धोखेबाज़ को पहचानते हैं अब । उम्र गवाह है कि उम्र टिकती नहीं, तारीख बंधी नहीं है, वह भी रुकती नहीं । ज़्यादती वह हद ना पार कर जाए कि हर्ज़ाने का ही वक़्त फिसल जाए । जान है, जिंदादिली से जियो, दिल खोलकर आहें भरो, दिल खोलकर जीने दो । ख़ुदा कहो या भगवान, वह नज़रे गाड़े बैठा है
A pantomime to the tunes of our frenetic everyday, Kallola is dedicated to the urban mind. It is a commentary and observation of society, of culture, of tradition... of suggestion and hope. Because when time overtakes time, as it is wont to do, we realise that the rules are always the same - we just play our strokes differently. © 2008-2021 tejuthy.blogspot.com Any part of this blog when shared, copied or referred to in any format, must bear due credit to tejuthy.blogspot.com